बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने उत्तर प्रदेश के सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में रैलियों को संबोधित करके उत्तर प्रदेश में 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की है. पार्टी का प्रदर्शन उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनावों में अच्छा रहा था, जहां उसने सहारनपुर सहित 10 सीटें जीतीं. लेकिन पिछले कुछ समय से ये तो साफ हो गया है कि बीएसपी का प्रभाव उत्तर प्रदेश में ही नही पूरे देश में कम हुआ है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में सबसे निराशाजनक प्रदर्शन बसपा का रहा. पार्टी 403 में से मात्र एक सीट पर जीत दर्ज कर पाई और उसका वोट प्रतिशत 12.9 फीसदी रहा. 2023 में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभा चुनाव में नतीजे भी बीएसपी के लिए बहुत खराब रहें हैं. तीन राज्यों में बीएसपी का खाता नहीं खुला और राजस्थान में दो सीटों पर सिमट गई. इतना ही नहीं, बीएसपी का वोट फीसदी भी चारों राज्यों में गिर गया.
बीएसपी को इस बार के 2023 के विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में 2.09 फीसदी, राजस्थान में 1.82 फीसदी, मध्य प्रदेश में 3.4 फीसदी और तेलंगाना में 1.38 फीसदी वोट मिले हैं. वहीं, 2018 में एमपी में बीएसपी के 4.03 फीसदी वोट के साथ दो विधायक जीते थे. छत्तीसगढ़ में दो विधायकों के साथ 3.09 फीसदी वोट मिले थे. राजस्थान में छह विधायक और 4.03 फीसदी वोट मिले थे. इस लिहाज से हर राज्य में बीएसपी के विधायक की संख्या भी गिरी है और वोट बैंक में गिरावट आई है. इससे पहले हिमाचल, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बीएसपी को करारी मात खानी पड़ी थी. उत्तरप्रदेश से लेकर देश भर के राज्यों में बीएसपी का सियासी ग्राफ चुनाव दर चुनाव गिरता जा रहा है और दलित समुदाय का मायावती से मोहभंग हो रहा है.
उत्तर प्रदेश का 22 फीसदी दलित समाज दो हिस्सों में बंटा है. एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 12 फीसदी है और दूसरा 10 फीसदी गैर-जाटव दलित हैं. मायावती जाटव समुदाय से आती हैं. 22 फीसदी दलित आबादी में जाटव के बाद पासी और धोबी सबसे आबादी वाली जाति हैं. पासी, धोबी, कोरी, खटिक, धानुक, खरवार, वाल्मिकी सहित अन्य दलित जातियों को गैर-जाटव कहा जाता है. दलित वोट एक समय कांग्रेस के साथ रहा, लेकिन कांशीराम के चलते बीएसपी का परंपरागत वोटर बन गया था. मायावती के लगातार चुनाव हारने से उनकी पकड़ दलित वोटों पर कमजोर हुई और बीएसपी से दलितों का मोहभंग होता दिखा है. गैर-जाटव दलित मायावती का साथ छोड़ चुका है. ऐसे में दलित वोटों पर जिस तरह से विपक्षी दलों की नजर है, उससे बीएसपी की चिंता बढ़नी लाजमी है.
क्या राजनीतिक भविष्य है संकट में?
उत्तर प्रदेश में बीएसपी के कमजोर होने के चलते दलित समुदाय बीजेपी के साथ जुड़ रहा है. दिल्ली में एक समय बीएसपी तीसरी ताकत के तौर पर उभरी थी, लेकिन अब पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है. दलित समुदाय दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ चला गया है. उत्तराखंड में एक समय बीएसपी तीसरी पार्टी के तौर पर थी, उसके सांसद और विधायक थे, लेकिन अब पूरी तरह से साफ हो गई है. पंजाब में बड़े अरसे के बाद एक विधायक बना है, जबकि हरियाणा में शून्य पर है. कर्नाटक में बीएसपी का 2018 में एक विधायक था, लेकिन 2023 के चुनाव में वो भी हार गया. इस तरह से बीएसपी का वोट भी लगातार गिरता जा रहा है. बिहार में बीएसपी के टिकट पर जीते इकलौते विधायक ने जेडीयू का दामन थाम रखा है. 2019 में बीएसपी ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ा था, तो शून्य से 10 सांसद उत्तर प्रदेश में हो गए थे, लेकिन 2022 में विधानसभा में अकेले चुनाव लड़ कर एक सीट पर सिमट गई.
मायावती 2024 के चुनाव में अकेले चुनावी मैदान में उतरी है. मायावती के इस एकला चलो की राह से बीएसपी का सियासी हश्र और भी खराब हो सकता है. लेकिन क्या उत्तर प्रदेश में बीएसपी के घटे वोट फीसद को देखते हुए ये कहना सही होगा कि दलित समुदाय ने मायावती का साथ छोड दिया है?
शायद ये पूरी तरह से सही नहीं होगा. इसकी बानगी बीते साल 2023 में हुए नगर निगम के चुनावों में भी नजर आई थी. बीते साल उत्तर प्रदेश के सभी 17 नगर निगमों में मेयर सीट पर चुनाव हुआ था. इस चुनाव में बीजेपी ने क्लीन स्वीप करते हुए सभी 17 सीटों पर कब्जा किया था. इन 17 सीटों में से 4 पर बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी दूसरे नंबर पर थे. इन उम्मीदवारों ने बीजेपी को आखिरी चरण तक कड़ी टक्कर दी थी. इतना ही नहीं, बीएसपी के इन प्रत्याशियों ने कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का खेल भी बिगाड़ दिया था. आसान शब्दों में कहें तो इन सीटों पर एसपी और कांग्रेस जीत के करीब भी नहीं पहुंच सकी थी.
वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयारी में बाकी दल
उत्तर प्रदेश की राजनीतिक बिसात पर मायावती फिलहाल अलग-थलग पड़ गई हैं, जिसके चलते दलित समुदाय के 22 फीसदी वोट बैंक पर विपक्षी दलों की निगाहें लगी हुई हैं. बीजेपी, एसपी, आरएलडी, कांग्रेस और चंद्रशेखर आजाद तक दलित समुदाय का दिल जीतने की कोशिश में जुटे हैं.
चंद्रशेखर आजाद भी जाटव हैं और मायावती की तरह पश्चिम उत्तरप्रदेश से आते हैं. जाटव वोट बीएसपी का हार्डकोर वोटर माना जाता है, जिसे चंद्रशेखर साधने में जुटे हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपने पुराने दलित वोट बैंक को फिर से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही है. जातीय जनगणना की मांग कर कांग्रेस ने कांशीराम के एजेंडे, जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी हिस्सेदारी की बात की हैं. ये देखना होगा कि क्या दलित समुदाय कांग्रेस को अपने हितों के मुद्दे उठाने वाली पार्टी के तौर पर स्वीकार करता है या नहीं.
समाजवादी पार्टी भी अब यादव-मुस्लिम के साथ-साथ दलित और अति पिछड़े वर्ग के जोड़ने के मिशन पर जुटी है. अखिलेश यादव कह चुके हैं कि एसपी लोहिया के साथ अंबेडकर और कांशीराम के विचारों को लेकर चलेगी. एसपी की नजर पूरी तरह से दलित वोटों पर है, जिसके लिए उन्होंने कांशीराम की प्रयोगशाला से निकले हुए तमाम बीएसपी नेताओं को अपने साथ मिलाया है और उनके जरिए दलितों के विश्वास जीतने की कोशिश कर रहे हैं. अंबेडकर वाहिनी बनाई तो साथ ही कांशीराम की मूर्ती का भी अनावरण किया.
इतना ही नहीं साफ-साफ कहते हैं कि लोहियावादी और अंबेडकरवादी एक साथ आ जाते हैं तो फिर उन्हें कोई हरा नहीं सकता है. सपा के कई दलित नेताओं को आगे बढ़ाने में जुटी है, जिसके जरिए 22 फीसदी वोटों को अपने साथ जोड़ने का प्लान है.
बीजेपी गैर-जाटव दलितों को अपने साथ जोड़ने में काफी हद तक सफल हो चुकी है और अब उसकी नजर जाटव वोटों पर है. बीजेपी लगातार दलित समुदाय के बीच अपनी पैठ जमाने की कोशिशों में जुटी है. केंद्र और राज्य की योजनाओं के जरिए दलित समुदाय के बीच बीजेपी ने एक बड़ा वोट बैंक तैयार कर लिया है. इतना ही नहीं आरएसएस सामाजिक समरसता के जरिए दलित समुदाय के विश्वास को जीतने की कोशिश कर रही है, जिसके लिए गांव-गांव अभियान भी चला रही है. बीजेपी ने दलित समुदाय के अलग-अलग जातियों को सरकार और संगठन में जगह देकर भी उन्हें सियासी संदेश देने की कोशिश कर रही है.
चौधरी चरण सिंह और चौधरी अजित सिंह की सियासी विरासत संभाल रहे आरएलडी के प्रमुख जयंत चौधरी की नजर भी दलित वोटों पर है. दलित वोटों को जोड़ने के लिए लगातार मशक्कत कर रहे हैं. जयंत अपने विधायकों को निर्देश दे चुके हैं कि विधायक निधी का 33 फीसदी पैसा दलित बस्तियों और उनके विकास के लिए खर्च करें. इतना ही नहीं उन्होंने दलित नेता चंद्रशेखर आजाद के साथ भी हाथ मिला रखा है. खातौली उपचुनाव में चंद्रशेखर के जरिए दलितों को वोट आरएलडी जोड़ने में सफल रही थी. जयंत चौधरी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम-दलित-गुर्जर समीकरण बनाने में जुटे हुए हैं और उसके लिए गांव-गांव अभियान भी चला रहे हैं.
अचानक क्यों जागा है मायावती का मुस्लिम प्रेम?
विधानसभा चुनावों में ब्राह्मणों पर फोकस करने वाली बीएसपी फिलहाल उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों का दिल जीतने की कोशिशों में जुटी हुई है. एक समय था जब मायावती की सार्वजनिक सभाओं में जय श्री राम, जय सिया राम और हर-हर महादेव के नारे लगते थे और मायावती के हाथ में त्रिशूल थमाया गया था. अब पार्टी ने बिल्कुल अलग रास्ता अपना लिया है. मायावती एक तरफ तो मुस्लिमों को अपने पाले में करने की कोशिशों में जुटी दिख रही हैं. बीएसपी का मुस्लिम प्रेम का ये बदलाव 2022 में ही शुरु हो गया था. जनसंख्या नियंत्रण और मदरसा जैसे संवेदनशील मामलों में मायावती के हालिया कुछ बयानों पर नजर डालें, तो आप यह पाएंगे कि वह मुस्लिम समुदाय का पक्ष लेकर उनमें अपनी पैठ मजबूत बनाने और एसपी को कमजोर करने की कोशिश कर रही हैं. वहीं पिछले दिनो मायावती के भतीजे आकाश आनंद ने कहा कि वो नई बाबरी मस्जिद के निर्माण के पक्ष में हैं.
बीएसपी का आंकलन है कि 2024 में मुस्लिम एसपी को छोड़ बीएसपी पर भरोसा करेंगे क्योंकि 2022 में उन्होंने अखिलेश का साथ दिया, लेकिन वह बीजेपी को नहीं हरा पाए. सवाल उठता है कि क्या अब मुस्लिम बहनजी के लिए वोट करेगा और क्या आप आने वाले लोकसभा चुनावों में दलित+मुस्लिम के साथ अन्य समाज के कमजोर तबके का गठजोड़ देखेंगे. लेकिन दूसरी तरफ ब्राह्मण उनकी रणनीति से पूरी तरह गायब होते नजर नहीं आ रहे हैं. वैसे तो देखने से लग सकता है कि सतीश मिश्रा जो बीएसपी में एक समय में मायावती के बाद सबसे ताकतवर नेता माने जाते थे आज हाशिए पर हैं. नकुल दुबे और राकेश पांडेय जैसे चेहरे पार्टी छोड़ चुके हैं. ऐसे ही बृजलाल खाबरी, लालजी वर्मा और राम अचल राजभर भी मायावती का साथ छोड़ गए. लेकिन जहां उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने अब तक 80 में से 57 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम घोषित किए हैं. इनमें मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या 14 है वहीं पार्टी ने बड़ी संख्या में ब्राह्मण उम्मीदवारों को भी मौका दिया है. इसके चलते मायावती के नेतृत्व में बीएसपी की रणनीति की दशा और दिशा को समझ पाना सबके लिए मुश्किल हो रहा है.
क्या होगा बीएसपी का ?
मायावती ने दलित+मुस्लिम+ब्राह्मण रणनीति के 17 साल पुराने इसी सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले से 2007 में यूपी की चुनावी जंग फतह की थी, उसी तर्ज पर 2024 में सियासी बिसात बिछाने में जुटी है. ये फॉर्मूला कितना कामयाब होगा ये कहना बेहद मुश्किल है. वो भी ऐसे में जब बीएसपी का गैर-जाटव वोट पूरी तरह से खिसक चुका है और अब जाटव वोटों में भी सेंधमारी शुरू हो गई है. बीएसपी के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव काफी चुनौतीपूर्ण बन गया है. बीएसपी को भी दलित वोट बैंक के छिटकने का एहसास है और यही कारण है कि बीएसपी उत्तर प्रदेश में अलग अलग सीटों पर भिन्न रणनीतियां का परीक्षण कर रही है. जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीएसपी मुस्लिम-दलित-जाट को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है. लेकिन फिलहाल बीएसपी की रणनीति 2024 के लोकसभा चुनावों में एसपी-कांग्रेस और बीजेपी के मज़बूत गढ़ों में वोट काट इन पार्टियों के उम्मीदवारों के लिए चुनाव का रुख पलटने से ज़्यादा नहीं लगती.
यही कारण है कि उत्तरप्रदेश में बीएसपी उम्मीदवारों का चयन एसपी-कांग्रेस गठबंधन और बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर रहा है. यानी बीएसपी खुद के उम्मीदवार जिताने की स्थिति में तो नहीं है लेकिन वो दूसरे उम्मीदवारों को हराने की स्थिति में जरुर दिखाई दे रही है. इस स्थिति में बीएसपी के प्रत्याशी 80 सीटों में से अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 17 सीटों पर तो सीधी चोट पहुंचाने की स्थिति में आ सकती है. इससे इतर कई सीटों पर जहां कम मार्जिन से जीत-हार तय होती है, वहां भी बीएसपी का काडर वोट बैंक जीत की हवा को विपरीत दिशा में मोड़ सकता है.
सहारनपुर:
बीएसपी ने पश्चिमी यूपी में कई जगहों पर मुस्लिम उम्मीदवार दिए हैं. सहारनपुर में बीएसपी से ही निकल कर कांग्रेस में शामिल हुए इमरान मसूद कांग्रेस से चुनाव लड़ रहे हैं. यहां बीएसपी ने माजिद अली को टिकट दे दिया. यहां करीब 42 प्रतिशत वोटर मुसलमान हैं. पिछले चुनाव में बीएसपी ने सहारनपुर की सीट जीत ली थी. तब एसपी, बीएसपी और आरएलडी का गठबंधन था.
मुरादाबाद:
यहां बीएसपी ने इरफान सैनी को उम्मीदवार बनाया है. समाजवादी पार्टी ने वर्तमान सांसद एस टी हसन का टिकट काट कर रूचिवीरा को दे दिया है. यहां 47 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं. मायावती ने यहां भी मुस्लिम कार्ड खेलने की कोशिश की है और आरोप लगाया है कि समाजवादी पार्टी ने उन सीटों पर भी हिंदू उम्मीदवार दे दिया जहां मुस्लिम वोटरों का दबदबा है.
बदायूं
बीएसपी ने पूर्व विधायक मुस्लिम खां को प्रत्याशी बनाया है. मुस्लिम खां बदायूं के कस्बा ककराला के निवासी हैं, जो मुस्लिम बहुल क्षेत्र है. मुस्लिम प्रत्याशी होने के नाते मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाकर मुस्लिम मतों को हासिल कर बीएसपी समाजवादी पार्टी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. यहां एसपी से शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव मैदान में हैं.
आजमगढ़:
यहां बीजेपी इस बार फंस गई है. अखिलेश यादव ने अपने चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव को समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बनाया है. बीजेपी से सांसद दिनेश लाल यादव निरहुआ चुनाव लड़ रहे हैं. मायावती ने भीम राजभर को टिकट दे दिया है. बीएसपी के उम्मीदवार से बीजेपी का वोट कटने का खतरा बढ़ गया है. पिछले उप चुनाव में बीजेपी इसलिए जीत गई थी क्योंकि तब मायावती ने मुस्लिम नेता को टिकट दे दिया था. यहां साढ़े तीन लाख यादव हैं. तीन लाख से ज़्यादा मुसलमान और तीन लाख दलित है. मुसलमान एकजुट होकर जिसके साथ गया, उसकी जीत तय समझिए.
जौनपुर
यहां बीजेपी ने कृपाशंकर सिंह को टिकट दिया है, वहीं सपा ने बाबूलाल कुशवाहा को उतारा है. यहां मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है. बीजेपी ने कृपाशंकर सिंह को राजपूत वोटों की लालच में यहां उम्मीदवार बनाया था. पर अब जब जेल में बंद बाहुबली धनंजय सिंह की पत्नी श्रीकला सिंह को बीएसपी से टिकट मिलने से यहां मुकाबला मुश्किल हो गया है. राजपूत वोटों को धनंजय सिंह के साथ जाने से अगर बीजेपी रोक नहीं सकी तो. बाबूलाल कुशवाहा की स्थिति यहां मजबूत हो सकती है.
मेरठ
बीजेपी ने यहां रामायण के राम को उतारकर पूरे उत्तर प्रदेश को अयोध्या के राम मंदिर की याद दिलाने कोशिश की है. मेरठ लोकसभा सीट से समाजवादी पार्टी ने जनरल सीट पर दलित वर्ग से आने वाली सुनीता वर्मा को टिकट दिया है और बहुजन समाज पार्टी ने अगड़ी समुदाय से आने वाले देवव्रत त्यागी को चुनावी मैदान में उतारा है. मेरठ में ज्यादातर राजपूत-त्यागी समुदाय ने बीजेपी के प्रति अपना असंतोष जताया है. ऐसे में अगर त्यागी समुदाय के 50,000 वोट भी मिल जाते हैं तो चुनाव बीजेपी के लिए मुश्किल हो जायेगा.
बरेली
बरेली में बीएसपी उम्मीदवार छोटेलाल गंगवार का मुकाबला छत्रपाल गंगवार से हैं. बीजेपी ने इस बार संतोष गंगवार की जगह छत्रपाल गंगवार को टिकट दिया है. मतलब सीधा है कि यहां पर बीजेपी उम्मीदवार को अपनी जाति के ही पूरे वोट मिलने में मुश्किल होनी है.
मुजफ्फरनगर
यहां बीजेपी से केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान और समाजवादी पार्टी से हरेंद्र मलिक के बीच टक्कर है. ठाकुर समाज की संजीव बालियान से नाराजगी और वहीं पूर्व विधायक संगीत सोम और संजीव बालियान के बीच का विवाद अब मंच से उतरकर सड़क पर आ गया है. यहां का सियासी तापमान पारा बढ़ाने में बीएसपी के उम्मीदवार दारा सिंह प्रजापति भी योगदान दे रहें हैं. बीजेपी के संजीव बालियान पिछली दो बार से लगातार इस सीट से सांसद रहे हैं. मुजफ्फरनगर के 18 लाख वोटर में से 18 फीसद दलित हैं इसका बडा हिस्सा अगर बीएसपी के दारा सिंह प्रजापति की तरफ मुडा तो यहां भी चुनाव में फेरबदल संभव है.
कैराना
यहां चुनावी मुकाबला दिलचस्प है, मुजफ्फरनगर में मायावती ने अपनी रैली में राजपूत समाज की नाराजगी का मुद्दा उठाकर कैराना की राजनीति को साधने की कोशिश है. दरअसल बीएसपी का उम्मीदवार श्रीपाल सिंह राणा राजपूत समाज के हैं. बीजेपी ने एक बार फिर सांसद प्रदीप चौधरी पर दांव खेला है. प्रदीप चौधरी गुर्जर समाज से आते हैं. समाजवादी पार्टी ने इकरा हसन को कैडिडेट बनाया है. अगर राणा अपने समुदाय के मतदाताओं का समर्थन हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं तो बीएसपी यहां निश्चित तौर पर बीजेपी का काम खराब कर रही है.
बिजनौर
यहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 40 प्रतिशत है. बीएसपी ने बिजेंदर सिंह, एक ‘जाट’ को मैदान में उतारा है. चूंकि आरएलडी, जो कि बीजेपी की गठबंधन सहयोगी है, ने ‘गुर्जर’ चंदन चौहान को मैदान में उतारा है, इसलिए गुर्जर-जाट जो कभी एक साथ वोट नहीं करते के चलते बिजेंदर सिंह को बड़ी संख्या में जाट वोट मिलने की उम्मीद है जो एनडीए के लिए नुकसानदायक होंगे.
बागपत
यहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 26 प्रतिशत है, बीएसपी ने प्रवीण बंसल को मैदान में उतारा है, जो 'बनिया' समुदाय से हैं, बनिया बीजेपी के पारंपरिक मतदाता हैं. ऐसे में बीजेपी की मुश्किलें बढ़ेगी.
सुलतानपुर
मेनका गांधी इस समय भाजपा से सांसद हैं. अवध क्षेत्र में अयोध्या के पड़ोस में स्थित सुलतानपुर संसदीय सीट 2014 से ही भाजपा के पास है. ऐन वक्त पर बीएसपी प्रमुख मायावती ने यहां से कुर्मी समुदाय के धनवान और जमीनी कार्यकर्ता उदराज वर्मा को टिकट देकर पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के लगातार नवीं बार संसद पहुंचने की राह में रोड़े अटका दिए हैं. उदराज वर्मा बीजेपी के वोट बैंक में सेंधमारी करेंगें. दलित और कुर्मी के वोटों के साथ उसे उम्मीद है कि मुस्लिम समुदाय भी उसे जमकर वोट करेंगे. इधर भीम निषाद का टिकट बदलकर एसपी ने इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी के तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री राम भुआल निषाद को उतार लड़ाई को आक्रामक बना दिया है. सुल्तानपुर में करीब दो लाख निषाद आबादी वाले जिले में बड़ी संख्या में निषाद मत गठबंधन को मिलने का दावा किया जा रहा है. यदि ऐसा हुआ तो मुस्लिम और यादव मतों का एसपी के पक्ष में होना तय माना जा रहा है.
रामपुर
रामपुर में होने वाले चुनावों में पिछले तीन दशकों में आजम खान की चलती रही है. अभी भी वे जेल में बंद हैं. रामपुर सीट पर बीजेपी ने एक बार फिर घनश्याम सिंह लोधी पर दांव खेला है. घनश्याम लोधी ने लोकसभा उप चुनाव 2022 में जीत दर्ज की थी. अखिलेश ने रामपुर सीट पर मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी को उम्मीदवार बनाया है. बीएसपी ने जीशान खान को अपना उम्मीदवार बनाया है जो 52 फीसदी मुस्लिम मतदाता वाली इस लोकसभा सीट पर अखिलेश का काम खराब करने वाला है.
अमरोहा
यहां 2024 के चुनाव के लिए बीजेपी ने पिछली बार हारे कंवर सिंह तंवर को फिर से टिकट देते हुए भरोसा जताया है. 2019 में बीएसपी से जीते दानिश अली ने बसपा छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया है. मायावती ने टिकट डॉ. मुजाहिद हुसैन उर्फ बाबू भाई को उम्मीदवार बनाया है. जाहिर है कि इस बार दानिश अली के लिए यह सीट आसान नहीं है.
एटा
एटा में बीएसपी ने पूर्व कांग्रेसी नेता मोहम्मद इरफान को मैदान में उतारा है. यह सीट हिंदू हृदय सम्राट का दर्जा प्राप्त पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की रही है. अब उनके बेटे राजवीर सिंह यहां से प्रत्याशी होते हैं. एसपी ने इस सीट से एक शाक्य नेता को मैदान में उतारा है. जाहिर है कि बीएसपी का मुस्लिम उम्मीदवार एक बार फिर बीजेपी के लिए फायदेमंद होगा.
कन्नौज
बीएसपी ने कन्नौज से मौजूदा सांसद और बीजेपी उम्मीदवार सुब्रत पाठक के खिलाफ इमरान बिन जाफर को मैदान में उतारा है. यह सीट समाजवादी पार्टी का गढ़ रही है. बीएसपी एक बार फिर यह सीट समाजवादी पार्टी के हाथ में नहीं जाने का कारण बन सकती है.
घोसी
यहां बीएसपी ने मौजूदा सांसद अतुल राय का टिकट काटकर उनकी जगह बालकृष्ण चौहान को टिकट दिया है. एनडीए के उम्मीदवार यहां सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर हैं, जबकि एसपी ने विपक्षी गठबंधन के हिस्से के रूप में राजीव राय को मैदान में उतारा है. यहां बीएसपी का उम्मीदवार या तो चुनाव जीत सकता है नहीं तो समाजवादी पार्टी के जीत का कारण बन सकता है.
चंदौली
इस लोकसभा सीट पर 2019 में बीजेपी कैंडिडेट महेंद्र नाथ पांडेय को महज 13 हजार वोटों से जीत मिली थी. बीएसपी ने उनकी इस लड़ाई को और मुश्किल बना दिया है. बीएसपी ने सत्येंद्र मौर्य को उम्मीदवार बनाकर बीजेपी को यहां और कमजोर कर दिया है. पूर्व के चुनावों में इस सीट पर मौर्य वोटर्स का खासा प्रभाव देखा गया है. समाजवादी पार्टी ने राजपूत वोटरों को देखते हुए इस बार 2 बार के विधायक और पूर्व मंत्री वीरेंद्र सिंह को टिकट देकर चुनाव को रोचक बना दिया है.
इसके अलावा अकबरपुर से राकेश व्दिवेद, मिर्जापुर से मनीष त्रिपाठी, उन्नाव से अशोक पांडे, फैजाबाद से सच्चिदानंद पांडे और बस्ती से दयाशंकर मिश्रा को बीएसपी ने टिक्ट दिया है और ये सभी सीटें ब्राहम्ण बहुल हैं ऐसे में यहां बीएसपी बीजेपी के वोट काटेगी. इसके अलावा पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, फर्रूखाबाद, बांदा आदि में पार्टी कहीं बीजेपी तो कहीं समाजवादी पार्टी को चैलेंज कर रही है.
अब देखना दिलचस्प होगा कि बहुजन समाज पार्टी के बिना लोकसभा चुनाव 2024 में उत्तरप्रदेश के लिए ये विपक्षी गठबंधन कितना कारगर होगा. यदी एसपी-कांग्रेस गठबंधन का प्रदर्शन बुरा हुआ साथ ही पूर्वी और पश्चिमी उत्रर प्रदेश की सीटों पर बीएसपी उम्मीदवारों ने बीजेपी और एसपी-कांग्रेस गठबंधन के बीच हार जीत तय की तो लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में चाहे बीएसपी सीटें न जीत पाये लेकिन उसकी प्रासंगिकता उत्तर प्रदेश की राजनीति में सुनिश्चित जरुर हो जायेगी.
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