Chandrayaan 3 Moon Landing: 41 दिन की यात्रा पूरी करके चंद्रायान-3 बुधवार (23 अगस्त) को चांद पर पहुंचेगा. इस पल को देखने की लोगों में इतनी उत्सुकता है कि वह चंद्रयान-3 के बारे में सबकुछ जानने की कोशिश कर रहे हैं. लोगों के दिमाग में यह भी सवाल है कि जब चीन, अमेरिका और रूस ने सिर्फ 4 दिन में मिशन मून पूरा कर लिया तो भारत को 41 दिन क्यों लग रहे हैं. चंद्रयान सीधे चांद पर लैंड करने के बजाय पृथ्वी और चांद की कक्षाओं में चक्कर लगाते हुए आगे बढ़ रहा है, जबकि दूसरे देशों ने मिशन मून के लिए इस तरीके का इस्तेमाल नहीं किया. एक्सपर्ट्स का कहना है कि भारत ने जुगाड़ तरीके से मिशन मून की योजना बनाई है ताकि कम फ्यूअल खर्च हो और लागत भी कम आए.
विज्ञान के एक्सपर्ट राघवेंद्र सिंह ने बताया कि चीन, अमेरिका और रूस की टेक्नोलॉजी भारती से थोड़ी एडवांस है और उनका रॉकेट काफी ज्यादा पावरफुल है. एक्सपर्ट ने कहा, ‘पावरफुल का मतलब उसमें प्रोप्लैंड ज्यादा होता है और प्रोप्लैंड का मतलब होता है कि ऑक्सीजाइडर और फ्यूअल का मिश्रण. उनमें ज्यादा फ्यूअल होता है तो उनमें ज्यादा पावर बिल्ड होती है. ज्यादा पावर बिल्ड करने से ज्यादा पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण और एटमोस्फोरिक फ्रिक्शन (वायुमंडलीय घर्षण) को कम करते हुए रॉकेट को सीधे लेकर जाते हैं और चांद पर भी उसी तरह पहुंच जाते हैं.’
दूसरे देशों के मिशन से कई सौ करोड़ रुपये सस्ता है चंद्रयान-3
एक्सपर्ट राघवेंद्र ने बताया, ‘हमारा रॉकेट कम पावरफुल है इसलिए देशी भाषा में जैसे कहते हैं, हम जुगाड़ टेक्नोलॉजी इस्तेमाल करते हैं. हमारी धरती अपने अक्ष पर चारों तरफ घूम रही है तो हमें पता है कि यह 1650 किमी प्रति घंटे के साथ घूम रही है और इसके साथ हम भी घूम रहे हैं. तो इस मोमेंटम का फायदा उठाते हुए धीरे-धीरे अपनी हाइट बढ़ाते हैं ताकि फ्यूअल कम खर्च हो. दूसरे देश अपने मिशन को 4-5 दिन में पूरा करने के लिए 400 से 500 करोड़ रुपये खर्च करते हैं जबकि भारत में मिशन की लागत 150 करोड़ रुपये है.’
अमेरिका, चीन और रूस ने किया किस तकनीक का इस्तेमाल?
चांद पर पहुंचने के दो तरीके हैं. चान, अमेरिका और रूस ने जिस तरीके का इस्तेमाल किया उसमें धरती से सीधे चांद की ओर रॉकेट छोड़ दिया जाता है. दूसरा तरीका है कि रॉकेट के जरिए स्पेसक्राफ्ट को पृथ्वी के ऑर्बिट में पहुंचाया जाता है और फिर स्पेसक्राफ्ट चक्कर लगाना शुरू कर देता है. इसके लिए स्पेसक्राफ्ट फ्यूएल की जगह पृथ्वी की रोटेशनल स्पीड और ग्रेवेटिशनल फोर्स का इस्तेमाल करता है. धरती अपने अक्ष पर 1650 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से घूमती है, जिससे स्पेसक्राफ्ट को रफ्तार पकड़ने में मदद मिलती है. बाद में साइंटिस्ट इसके ऑर्बिट का दायरा बदलते हैं. इस प्रक्रिया को बर्न कहते हैं. इस तरह स्पेसक्राफ्ट के ऑर्बिट के चारों ओर चक्कर लगाने का दायरा बढ़ जाता है और धरती के ग्रेविटेशनल फोर्स का असर भी अंतरिक्षयान पर कम होना शुरू हो जाता है. बर्न की मदद से ही स्पेसक्राफ्ट को सीधे चांद के रास्ते पर ड़ाल दिया जाता है और बिना किसी मेहनत के स्पेसक्राफ्ट चांद पर पहुंच जाता है.
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